ग्वालियर__विजयी दशमी के मौके पर हुई अशत्र- शस्त्र की पूजा, सन 1857 की मौजूद शस्त्रो की होती है पूजा

विजयी दशमी के मौके पर वेसे तो समूचे देश मे अशत्र- शस्त्र से लेकर कलपुर्जो की पूजा की जाती है। लेकिन आज हम आपको ग्वालियर की एक ऐसी पूजा दिखाने जा रहे है जिसे कोई आम आदमी नही वल्की साधू संत करते है और वो भी हथियारो कि ..यह हथियार कोई साधारण हथियार नही है इन हथियारों का इतिहास मे खासा महत्व है। शायद आपको पुराना वो जमाना याद आ जाए जब तोप और तलबारो से ही लडाई लड़ी जाती थी, लेकिन आज शायद ही किसी के पास निजी तौर पर तोप देखने को मिलेगी। लेकिन हम आप को बताते है कि यह तोप पूरी तरह से निजी है और इसका मालिक कोई और नही वल्की एक मंदिर के साधू संत है। आप सोच रहे होंगे की साधुओ को तोप की क्या जरूरत है.. तो पहले हम इस स्थान के बारे मे आपको बता दे..…दरअसल यह स्थान ग्वालियर की लक्ष्मीबाई कालोनी मे बना गंगादास की बडी शाला है, जिसका इतिहास मे अपना अलग ही महत्व है। जी हा यह वही स्थान है जहां सन 1857 मे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजो से लडते लडते अपने प्राणो को न्यौछावर कर दिया था। जब रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजो से लडते लडते ग्वालियर तक आई और जब उन्हे अंग्रेजो ने चारो तरफ से घेर लिया तो रानी ने यहा पर रहने वाले गंगादास महाराज से मदद मांगी जिस पर गंगादास संत ने अपने साधुओ के साथ रानी की रक्षा के लिए अंग्रेजो से लोहा लिया,साधुओ के युद्ध कोशल को देखकर अंग्रेज भाग खडे हुए हालांकि इस लडाई मे रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई वही इस स्थान के 745 साधू भी शहीद हो गए थे..लेकिन जिन अस्त्र शस्त्रो से साधुओ ने अंग्रेजो से लोहा लिया था वो आज भी यहा रखे हुए है जिनकी विजयी दशमी के दिन पूजा की जाती है।सबसे पहले सुबह के वख्त सभी शहीद साधुओ की समाधी स्थानकी पूजा की जाती है उसके बाद मन्त्रोउच्चार के साथ हवन आहुती दी जाती है। इसके बाद पूजा का सिलसिला शुरु होता है जो कई घंटो तक चलता है खास बात यह है इस आश्रम मे आज भी सन 1857 की तलवार,तेगा,फरसा,वर्छी,भाला और वो सभी हथियार मौजूद है जिनसे उस दौर मे युद्द लडा गया था। आज तोप चलाने के साथ ही संतो ने शस्त्रों का कौशल प्रदर्शन भी किया, गौरतलब है कि यह शस्त्र हमे गर्व का अहसास दिलाते है जो विजयदषमी के दिन हर भारतीय के मन में आना चाहिए ।

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